दान वही है, जिसके बदले में कुछ पाने की लालसा न हो

मंदिर भवन बनवाने के लिए संचालक मंडल शहर के एक धन्ना सेठ के पास पहुंचा और आर्थिक सहायता की पेशकश की। सेठ ने दान के बदले मंदिरों की एक-एक सीढ़ी पर नाम लिखवाने की परिपाटी का हवाला दिया। सेठ ने निर्माण के लिए दोगुनी राशि देने की बात कही, पर शर्त रखी कि उनके माता-पिता का नाम प्रवेश द्वार और चार चिह्नित दीवारों पर प्रमुखता से खुदवाया जाए। निष्ठावान संचालकों को सेठ की शर्त नहीं जंची। सेठ का दो टूक ऐलान था, नाम नहीं तो दान नहीं। लेकिन असल दान तो वह है, जब एक हाथ को पता न चले कि दूसरे ने कब, किसे और कितना दिया।

दान वही है, जिसके बदले में कुछ पाने की लालसा न हो

मंदिर भवन बनवाने के लिए संचालक मंडल शहर के एक धन्ना सेठ के पास पहुंचा और आर्थिक सहायता की पेशकश की। सेठ ने दान के बदले मंदिरों की एक-एक सीढ़ी पर नाम लिखवाने की परिपाटी का हवाला दिया। सेठ ने निर्माण के लिए दोगुनी राशि देने की बात कही, पर शर्त रखी कि उनके माता-पिता का नाम प्रवेश द्वार और चार चिह्नित दीवारों पर प्रमुखता से खुदवाया जाए। निष्ठावान संचालकों को सेठ की शर्त नहीं जंची। सेठ का दो टूक ऐलान था, नाम नहीं तो दान नहीं। लेकिन असल दान तो वह है, जब एक हाथ को पता न चले कि दूसरे ने कब, किसे और कितना दिया।

 

देना ईश्वरीय गुण है। प्रभु पात्रता और जरूरत के अनुसार देते हैं। ले-देकर हिसाब बराबर समझ लेना मानवीय स्वभाव है और जैसे-तैसे लूट-खसोट कर लेना राक्षसी वृत्ति है। जो सामर्थ्य भर है, उसे ही देना होता है। देने में प्रमुखता भाव की होती है, मात्रा या क्षमता की नहीं। धन से इतर दूसरों को राहत पहुंचाना और ज्ञान, प्रेम, विद्या, कौशल का दान भी कम पुण्यकारी नहीं है। खानापूर्ति या पिंड छुड़ाने के लिए जो दिया जाए, वह दान नहीं है। देने के एवज में किसी लाभ की अपेक्षा या मांग तो सौदेबाजी हुई। नामी चित्रकार पिकासो ने कहा है- जीवन उसी का धन्य है जिसने अपने गुणों और क्षमताओं को पहचान कर इसका लाभ अन्य व्यक्तियों तक बिना लेन-देन के पहुंचाया है। लेन-देन तो समस्त लौकिक गतिविधियों की धुरी है।

 

विश्व में उपलब्ध समस्त धन, मूल्यवान वस्तुएं, ज्ञान, कौशल और विद्याएं चंद हाथों या वर्गों तक सिमट न जाएं, इस आशय से सभी समुदायों और पंथों में दान की परंपरा फली-फूली। दान देने वाला कभी कंगाल नहीं होता, क्योंकि दान देने की भावना जिसमें है वह परिश्रम से अर्जन करना भी जानता है। ऐसा भी कहा जाता है कि देने वाले का भंडार भरा रहता है। सक्षम और संपन्न व्यवसायी अपने निवेश का एक अंश दान, सेवा जैसे जनहित कार्यों में खर्चते हैं। जितना अधिक देते रहेंगे उसी अनुपात में मिलता रहेगा। देना या लेना एक चयनित जीवन शैली है। लेन-देन संबंधों को तरोताजा रखता है, पर अधिसंख्य व्यक्ति ऐसे व्यक्तियों, स्थानों और अवसरों पर नजर जमाए रहते हैं जहां से मुफ्त में प्राप्ति हो। यह प्राकृतिक विधान के प्रतिकूल है।

 

स्वर्णाक्षरों में उन्हीं का नाम लिखा गया जो देश-समाज को दे कर गए, लूटने-खसोटने वालों का नहीं। दान की प्रक्रिया में जहां ग्राही का कार्य सधता है वहीं दाता की आत्मा प्रफुल्लित होती है। उसकी सकारात्मक सोच संपुष्ट होती है और उसे अपार तुष्टि मिलती है। सुख का राज है, जो दिया वह याद न रहे और जो मिला उसे भूलें नहीं। सार्थक और संतोष भरे जीवन के लिए सूर्य या उस झरने की वृत्ति अपनानी होगी जो पशु-पक्षियों, मनुष्यों को सतत राहत और प्रश्रय देता है। जब किसी को लेने के बदले देना रास आने लगे तो समझ लें कि उसने जीना सीख लिया और अपना जीवन संवार लिया। जब लेने से ज्यादा देने में मजा आने लगे तो समझें जीवन में बहार आना तय है।