भक्ति-योग
निष्कपट रूप से ईश्वरानुसन्धान ही भक्ति योग है । प्रेम ही इसका आदि, मध्य और अवसान है । भगवद् भक्ति मे एक मुहूर्त्त उन्मत्त रहना शाश्वत मुक्तिप्रद होता है । नारद अपने भक्तिसूत्र में कहते हैं कि "भगवान का परम प्रेम ही भक्ति है । जीव इसका लाभ करके समस्त प्राणियों के प्रति प्रेम वान् और घृणा शून्य होजाता है एवं अनन्त काल पर्यन्त तुष्टिलाभ करता है । इस प्रेम के द्वारा कोई काम्य सांसारिक वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती है । क्योंकि विषय वासना रहते हुये इस प्रेम का उदय ही नहीं होता है । भक्ति कर्म, ज्ञान, और योग से भी श्रेष्ठतर है । क्योंकि साध्य विशेष ही उनका लक्ष्य है, किन्तु “भक्ति स्वयं साध्य एवं साधन रूप है ।" ॐ सा कर्मे परमप्रेमरूपा ।
निष्कपट रूप से ईश्वरानुसन्धान ही भक्ति योग है । प्रेम ही इसका आदि, मध्य और अवसान है । भगवद् भक्ति मे एक मुहूर्त्त उन्मत्त रहना शाश्वत मुक्तिप्रद होता है । नारद अपने भक्तिसूत्र में कहते हैं कि "भगवान का परम प्रेम ही भक्ति है । जीव इसका लाभ करके समस्त प्राणियों के प्रति प्रेम वान् और घृणा शून्य होजाता है एवं अनन्त काल पर्यन्त तुष्टिलाभ करता है । इस प्रेम के द्वारा कोई काम्य सांसारिक वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती है । क्योंकि विषय वासना रहते हुये इस प्रेम का उदय ही नहीं होता है । भक्ति कर्म, ज्ञान, और योग से भी श्रेष्ठतर है । क्योंकि साध्य विशेष ही उनका लक्ष्य है, किन्तु “भक्ति स्वयं साध्य एवं साधन रूप है ।"
ॐ सा कर्मे परमप्रेमरूपा ।
हमारे देश के समस्त महापुरुषों ने भक्ति का सतत मुख्य रूप से विवेचन किया है । शाडिल्य नारदादि भक्ति तत्व के मुख्य व्याख्यातागणों के अतिरिक्त ज्ञान मार्ग समर्थक व्याससूत्र ( वेदान्त) भाष्यकार महा पण्डितगणों ने भी भक्ति के सम्बन्ध में अनेक स्पष्ट संकेत किये हैं । समस्त सूत्रों का नहीं तो अधिकांश सूत्रों का भाष्यकारों का शुष्क ज्ञान परक अर्थ करने का आग्रह होने पर भी सूत्रों और विशेषत: उपासना विषयक सूत्रों के अर्थ का निस्पक्ष भाव से अनुसन्धान करने पर सहज ही उनकी यथेच्छा व्याख्या करने की शक्ति चल नही सकती है। (अर्थात् हठात् भक्ति पदक सूत्रों का अर्थ क्लिष्ट कल्पना के आधार पर ज्ञान परक नहीं किया जा सकता है | )
वस्तुत: ज्ञान और भक्ति मे इतना भेद नही है, जैसी कि प्रायः लोगों की कल्पना है । आगे हमको प्रतीत हो जायगा कि ज्ञान और भक्ति दोनों अन्त मे किस प्रकार एक ही लक्ष्य की ओर समन्वित रूप मे पर्यवसित होते हैं। राजयोग का लक्ष्य भी वही है । अव्यवस्थितजनों को धोखा देने का उद्देश्य न हो ( जैसाकि दुर्भाग्य से ठगों और ऐन्द्रजालिकों के द्वारा इसका प्रयोग होता है ) किन्तु मुक्ति लाभ का एक साधनमात्र समझ कर इसका अनुष्ठान किया जाय तो यह भी उसी एक लक्ष्य को प्राप्त करा देता है ।
भक्ति की एक बड़ी विशेषता यह है कि वह हमारे परम लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति के निमित्त अत्यन्त सहज और स्वाभाविक मार्ग है ; किन्तु इसकी बड़ी असुविधा यह है कि अपने निम्न तलों में प्रायः यह भयानक कट्टरता का स्वरूप धारण कर लेती है । हिन्दू, मुसल मान अथवा ईसाइयों का कट्टर दल इस निम्नस्तलवर्ती साधकों में से ही प्रायः अनेक समयों में प्राप्त किया जाता रहा है। जिस इष्ट निष्ठा के बिना स्वाभाविक प्रेम का होना ही असम्भव है, वही अनेक अवसरों पर परमत के प्रति तीव्र आक्रमण और दोपारोपण का कारण होती है । प्रत्येक धर्म अथवा देश मे दुर्बल और अविकासित मस्तिष्क वालों के लिये अपने आदर्श के प्रति भक्ति प्रदर्शन करने का एक ही साधन होता है अर्थात् अन्य समस्त आदशों को घृणा की दृष्टि से देखना ।
यही कारण है कि अपने ईश्वर तथा धर्म के आदर्शों में अनुरक्त व्यक्ति किसी दूसरे आदशों को देखते या सुनते ही कट्टर विरोध करने लगते हैं। यह प्रेम अथवा भक्ति वैसी ही है, जैसी कि एक कुत्ते में अपने मालिक की सम्पत्ति पर हस्तक्षेप निवारण करने की होती है। हॉ- अन्तर इतना अवश्य है कि कुत्ते की यह सहज प्रवृति मनुष्य की बुद्धि से श्रेष्ठतर है; क्योंकि कुत्ते को
अपने मालिक का भ्रम कभी नहीं होता, चाहे वह अपने शत्रु का हो भेष धारण करके कुत्ते के सामने आवे । पर कट्टर पन्थियों की विचार शक्ति का सर्वनाश हो जाता है। इनकी दृष्टि सदैव ही व्यक्तिगत विषयों पर इतनी अधिक लगी रहती है कि दूसरा क्या कहता है, वह सत्य है अथवा असत्य इत्यादि वात से इन्हें कोई प्रयोजन नहीं; किन्तु कहने वाले ही पर उनकी विशेष दृष्टि रहती है । यह लोग अपने सम्प्रदायवालों को, अपने मताव लम्बियों को ही प्रेम करते हैं तथा दया और भलाई करते हैं ; परन्तु दूसरे मतावलम्बियों के प्रति इन्हें नीचातिनीच कार्य करने मे तनिक भी संकोच नहीं होता ।
पर यह आशंका केवल निम्नस्तल भक्ति में ही है, जिसे 'प्रार म्भिक' अथवा 'गौणी भक्ति' कहते हैं। यही भक्ति जब परिपक होकर 'परा-भक्ति' में परिणत होती है तो भयावह कट्टरपन्थी की कोई आशंका नहीं रहती । इस 'परा - भक्ति' से अभिभूत व्यक्ति प्रेमस्वरूप भगवान के इतना निकट पहुँच जाता है कि वह घृणाभाव को विस्तृत करने का यन्त्र नहीं बना रहता ।
इस जीवन में सबको सामञ्जस्य के साथ चरित्र - संगठन का सौभाग्य नहीं प्राप्त होता, पर हम जानते है कि जिसके चरित्र में ज्ञान, भक्ति और योग सम भाव से विराजमान हों, अपेक्षाकृत उसी का चरित्र सर्वश्रेष्ठ होता है। पक्षी को उड़ने के लिये तीन वस्तुएँ आवश्यक हैं, दो पक्ष और एक संचालित पुच्छ । ज्ञान और भक्ति इसी प्रकार के दो पंख हैं और इनका सामञ्जस्य रखनके लिये पुच्छ स्वरूप योग है । जो लोग इन तीनों साधन प्रणा लियों का एक साथ अनुष्ठान नहीं कर सकते और एकमात्र भक्ति-पथ का अवलम्वन करते हैं, उन्हें यह सदैव स्मरण रहे कि वाह्य अनुष्ठान और क्रिया-कलाप ( यद्यपि प्रथम अवस्था के साधकों के लिये अत्यन्तावश्यक है ) की उपयोगिता ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ प्रेम उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।
ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग के उपदेशकों में कुछ सामान्य मतभेद है, यद्यपि दोनों ही भक्ति के प्रभाव को स्वीकृत करते हैं । ज्ञानी भक्ति को मुक्ति का उपाय मात्र मानते हैं; परन्तु भक्त गणों को इसमें उपाय तथा उद्देश्य दोनों ही सम्मिलित मिलते हैं । हमारी समझ मे यह अन्तर नाममात्र ही को है । प्रकृत पक्ष में, भक्ति को केवल साधन स्वरूप मानने से वह निम्नस्तल ', की उपासना ही हो जाती है और यही निम्नस्तल की उपासना आगे चलकर उच्चस्तल भक्ति में अभेद भाव से परिणत होती है। सभी लोग अपनी-अपनी साधना प्रणाली की तारीफ करते हैं । पर वे नहीं जानते कि पूर्ण भक्ति से अयाचित भी ज्ञान प्राप्ति होती है तथा पूर्ण ज्ञान में प्रकृत भक्ति अभेद भावेन सम्मिश्रित है। यह सिद्धान्त सममकर तथा ध्यान धरकर आओ देखें कि इस विषय में बड़े-बड़े वेदान्त भाष्यकारों ने क्या कहा है ? भगवान शङ्कराचार्य ने “आवृत्तिरसकृदुपदेशात् " सूत्र की व्याख्या करते हुए कहा है कि “लोग कहते हैं - अमुक व्यक्ति गुरु-भक्त है, अमुक व्यक्ति राज-भक्त है ।" यह उन्हीं के लिये कहा जाता है, जो गुरु या राजा के आदेशानुवर्ती हैं तथा जो लोग उनके श्रादेशानुवर्तन को ही लक्ष्य करके कार्य करते है । इसी प्रकार लोग कहते हैं कि 'पतिप्राणा स्त्री प्रवासी पति का ध्यान करती है तो यहाँ भी एकरूप, साग्रह और अविच्छिन्न ध्यान ही लक्षित किया गया है ।' भगवान् शंकर के मतानुसार यही भक्ति है ।
और भगवान रामानुज "अथातो ब्रह्म जिज्ञासा" सूत्र की व्याख्या करते हुए कहते हैं: --
"जिस प्रकार एक वर्तन से निक्षिप्त तैल दूसरे वर्तन में अविच्छिन्न धार से प्रवाहित होता है, उसी प्रकार ध्येय का निरंतर स्मरण का नाम ध्यान है । जब इस प्रकार का भगवत-ध्यान प्राप्त हो जाता है तो सब बन्धन मुक्त हो जाते हैं। शास्त्र इस निरंतर स्मरण को मुक्ति का कारण बतलाते हैं । इस स्मृति अथवा संस्मरण और दर्शन में कोई अन्तर नहीं; क्योंकि जो सुदूरवर्ती तथा अत्यन्त सन्निहित उस परम पुरुष को देख लेता है, उसकी सारी हृदय-मंथियों टूट जाती हैं, सब संशय विनष्ट हो जाते हैं. तथा सर्व कर्मचय हो जाता है। इस शास्त्रोक्त वाक्य में 'स्मृति'भक्ति के लक्षण
'दर्शन' के समानार्थक व्यवहार किया गया है । क्योंकि जो निकट है वह देखा जा सकता है; किन्तु दूरवर्ती वस्तु का केवल स्मरण हो सकता है । तथापि शास्त्र हमें निकटस्थ तथा दूरस्थ दोनों को देखने को कहता है । इस प्रकार स्मरण तथा दर्शन दोनों समकार्यकर और समभाव हैं । यही स्मृति प्रगाढ़ होने पर दर्शन हो के समान हो जाती है। शाखों के प्रधान - प्रधान श्लोकों से यह स्पष्ट है कि सर्वदा स्मरण हो उपासना है । ज्ञान जो निरंतर उपासना से अभिन्न है - निरंतर स्मरण ही कहा गया है । इसीलिये जब स्मृति प्रत्याक्षानुभूति का आकार धारण करती है, तो शास्त्र उसे मुक्ति का कारण कहता है। यह 'आत्मन' है नाना प्रकार की विद्याओं द्वारा, बुद्धि द्वारा किंवा अनवरत वेदा ध्ययन द्वारा नहीं प्राप्त होती । जिसको यह आत्मा स्वयम् वरती है, वही इसे प्राप्त करते हैं और उन्ही को यह आत्मा अपना स्वरूप प्रकाशित करती है । यहाँ पहले तो यह कहा गया है कि यह श्रात्मा श्रवण, मनन तथा अधिक अध्ययन द्वारा भी नही प्राप्त होता और फिर कहते है कि आत्मा जिसको स्वयम् बरती है, उसे ही वह प्राप्त होती है । अत्यन्त प्रिय को ही बरा जाता है । जो आत्मा से अतिशय प्रेम करते हैं, आत्मा उन्हीं को अत्यन्त प्रेम करती है । और इस प्रिय व्यक्ति को आत्मा प्राप्त करने में स्वयं भगवान सहायता करते हैं। भगवान ने स्वयं कहा है “जो मुझमें निरंतर आसक्त है और प्रेम से मेरी उपासना करता है, मैं उसकी बुद्धि और भावनाओं को ऐसा संचालित करता हॅू कि वह मुझे पा लेता है" इसीलिये कहते हैं कि जिनको यह अनुभावात्मक स्मृति प्रत्यक्ष में अतिप्रिय लगती है ( जिन्हे यह स्मृति विपयी भूत परम पुरुष अत्यन्त प्रिय है ) परमात्मा उसी को वरण करता है -- उसी को वह परम पुरुष प्राप्त होता है । भक्ति शब्द द्वारा यही निरन्तर स्मरण लक्षित किया गया है ।
पतञ्जलि के “ईश्वर प्रणिधानाद्वा" सूत्र की व्याख्या करते हुए श्रीभोजराज कहते हैं कि “प्रणिधान उस भक्ति को कहते हैं जिसमें फलाकांक्षा ( इन्द्रियों के भोगादि ) न हों तथा सर्व कर्म उस परम गुरु को समर्पित हो ।” और भगवान व्यास ने इसकी व्याख्या की है कि "प्रणिधान उस भक्ति विशेष को कहते हैं, जिसके द्वारा योगी उस परम पुरुष की कृपा को प्राप्त करता है और 'अपनी सारी वासनाओं को सन्तुष्ट करता है ।" + शाण्डिल्य के मतानुसार "ईश्वर में परमानुरक्ति ही भक्ति है ।" ÷ किन्तु भक्तराज प्रह्लाद ने जो भक्ति की संज्ञा की है, वह सर्वापेक्षा समीचीन है। कहने का दि जन्य विषय वासनाओं पर शुभ रहते है, हे भगवन्! तुम्हा स्मरण करने समय तुम्हारे पति क मेरे हृदय से चिकन न वागमति के लिये आसक्ति ? परम प्रभु ईश्वर के लिये और के प्र चाहे वह कितना ही बड़ा - भक्ति नही कही जा सकती। प्रमाण सरूप भगवान रामानुज ने अपने श्री भाग्य से एक प्राचीन आचार्य की उक्ति की है "अक्षा से लेकर एक क्षुद्र उगा तफ यानी कातन्तर्गत सय प्राणी- कर्मचन्नयुक्त जीवन और मृत्यु के वशीभूत है। साधक के ध्यान में यह अज्ञान मीमावर्ती तथा परिवर्तनशीन होने के कारण सहायक नहीं हो सकते। शादिय के सूत्र में अनु रक्ति' शब्द की व्याख्या करते हुए श्री स्वप्नेश्वर ने कहा है कि इसका अर्थ अनु पञ्चात् और रक्ति- आमस्ति प्रयोग ईश्वर का स्वरूप और महिमा जानने पर उनमें जो ध्यासक्ति आविर्भूत होती है ।" & नहीं तो किसी की भी अपने स्त्री, पुत्रादि के प्रति आसक्ति को भक्ति कहते । यतएव यह स्पष्ट सिद्ध है कि साधारण पूजा पाठादि से लेकर ईश्वर में प्रगाढ़ अनुराग तक अध्यात्मिक अनुभूतिजन्य चेष्टा परम्परा का ही नाम भक्ति है ।