विग्रह पूजा की परम्परा

भारतीय ऋषिमुनियों की परम्परा में एवं सनातन धर्मधारा में प्रतिमा या विग्रह पूजा का विधान है । कुछ लोग कहते हैं कि वेद उपनिषदों में परमात्मा की प्रतिमा नहीं है ( न तस्य प्रतिमा अस्ति ) । वहाँ प्रतिमा शब्द का अर्थ है तुलना, क्यों कि वे अप्रतिम हैं या अतुलनीय हैं। संस्कृत शब्दकोष में विग्रह का एक अर्थ शरीर या आकार (Body, Form, Shape) है । असुरराज हिरण्याक्ष के अत्याचार से तत्कालीन देवमूर्तियों ने (लिंग) दुःखित होकर अश्रुमोचन किया, ऐसा श्रीमद्भागवत में है - “व्यरुदन् देवलिङ्गानि” ( भागवत ३ - १७-१३) भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठपुत्र भरत कोभद्रकाली के सम्मुख बलि देने के लिए घातक ले गए थे । भरत के असह्य ब्रह्मतेज से देवी अतिष्ठ हो गई

विग्रह पूजा की  परम्परा

भारतीय ऋषिमुनियों की परम्परा में एवं सनातन धर्मधारा में प्रतिमा या विग्रह पूजा का विधान है । कुछ लोग कहते हैं कि वेद उपनिषदों में परमात्मा की प्रतिमा नहीं है ( न तस्य प्रतिमा अस्ति ) । वहाँ प्रतिमा शब्द का अर्थ है तुलना, क्यों कि वे अप्रतिम हैं या अतुलनीय हैं। संस्कृत शब्दकोष में विग्रह का एक अर्थ शरीर या आकार (Body, Form, Shape) है । असुरराज हिरण्याक्ष के अत्याचार से तत्कालीन देवमूर्तियों ने (लिंग) दुःखित होकर अश्रुमोचन किया, ऐसा श्रीमद्भागवत में है -

                        “व्यरुदन् देवलिङ्गानि”

                                ( भागवत ३ - १७-१३) भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठपुत्र भरत कोभद्रकाली के सम्मुख बलि देने के लिए घातक ले गए थे । भरत के असह्य ब्रह्मतेज से देवी अतिष्ठ हो गई और फिर मूर्ति से आविर्भूत होकर उन घातकों को काट कर उनका रक्तपान किया, (गलात् सवन्तम् असृगार्सवं निपीय) ऐसा भागवत में है । इससे ज्ञात होता है कि देवताओं की मूर्ति (विग्रह) उपासना बहुत प्राचीन काल से प्रचलित है ।

“दन्दह्यमानेन वपुषा सहसोच्चचाट सैव देवी

  भद्रकाली”

                                       ( भागवत ५-९-१७)

अर्थ - देवी भद्रकाली भरत के ब्रह्मतेज द्वारा अत्यंत दग्ध हो रहे वपु सहित अविलंब प्रतिमा से बाहर निकल आई।

 

सूर्यवंशी राजा अम्बरीष श्रीहरि की शरणागति भक्ति के द्वारा प्रत्येक इन्द्रिय से उनकी आराधना करते थे; यथा - चक्षु द्वारा वे मुकुन्द की मूर्ति (लिंग) के और उनके आलय के दर्शन करते थे ।

           “मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ”

                                             ( भागवत ९-४-१९)

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण देवताओं के तनु के अर्चन को प्रोत्साहन देते हुए कहते हैं - " हे अजुर्न ! जो जो भक्त श्रद्धा और विश्वासपूर्वक जिन

जिन देवताओं की तनु का अर्चन करना चाहते हैं, मैं उस भक्त में वैसी श्रद्धा का विधान करता हूँ ।

 

“यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्च्चितुमिच्छति । तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥“

                                                    ( गीत ७।२१)

 

तनु - तत् तत् मूर्त्तिविषयां (श्रीधर स्वामी),

 

गीतावर्णित 'तनु ' शब्द का स्वामिपाद ने 'मूर्ति' अर्थ किया है ।

भगवान श्रीकृष्ण का पाणिग्रहण करने से पहले रुक्मिणी देवी ग्राम के बाहर प्रतिष्ठित प्रतिमारूपिणी अम्बिका की (श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने के लिए) आराधना कर बोली

 

“नमस्ये त्वाम्बिकेऽभीक्ष्णं स्वसन्तानयुतां शिवाम् । भूयात् पतिर्मे भगवान् कृष्णस्तदनुमोदताम् ।।“

 

                                    ( भागवत १०-५३ - ४६)  

 

अम्बिके! मैं (गणेशादि ) आपकी अपनी संतानों सहित मंगलस्वरूपा आपको निरंतर प्रणाम करती हूँ कि भगवान् श्रीकृष्ण मेरे पति हों, उसे आप अनुमोदन करे ।

गोपकन्याएँ भगवान् श्यामसुन्दर को पतिरूप में पाने के लिए यमुना - किनारे कात्यायनी की बालुकामूर्त्ति निर्माण करके बोलीं

 

“कात्यायनि महामाये ! महायोगिन्यधीश्वरि । नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः ॥“

                                      ( भागवत १०-२२-४)

हे महामाये ! आपको नमस्कार । नन्दसुत को मेरा पति करो ।

ऋग्वेद में दारु - उपासना ( आरम्भण)

अदो यद्दारु प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम् । तदारभस्व दुर्हणो तेन गच्छ परस्तरम् ॥

(ऋग्वेद दशममण्डल १५५वाँ सूक्त) ईसा की चतुर्दश शताब्दी में वेदभाष्यकार श्रीसायणाचार्य उपर्युक्त मंत्र की जैसी व्याख्या की है, वह नीचे दी जा रही है -

अदो विप्रकृष्टदेशे वर्त्तमानं अपूरुषं निर्मात्रा पुरुषेण रहितं यद्दारु दारुमयं पुरुषोत्तमाख्यं देवताशरीरं सिन्धोः पारे समुद्रतीरे प्लवते जलस्योपरि वर्त्तते तद्-दारु हे दुर्हणो, दुःखेन हननीय केनापि हन्तुमशक्य ! हे स्तोत: आरभस्व, आलम्बस्व उपासस्वेत्यर्थः । तेन दारुमयेन देवेन उपास्यमानेन, परस्तरमतिशयेन तरणीयम् उत्कृष्टं वैष्णवलोकं गच्छ ।

अर्थ- दूरवर्ती स्थान में वर्त्तमान अपूरुष, निर्माता पुरुषरहित (स्वयम्भू) दारुमय पुरुषोत्तम नामक देवताशरीर समुद्र तीर के जल के ऊपर विराजमान हैं, हे स्तावक ! उस दारु की उपासना करो एवं उसके द्वारा उत्तम वैष्णवलोक को गमन करो । जो श्रीपुरुषात्तम रहस्य