सुखस्य दुःखस्य न कोपि दाता

जीवन में सुख-दुख, अच्छाई-बुराई, आचार-व्यवहार में विचारों का विशेष महत्व होता है। अच्छा भाव सकारात्मकता, जीवंतता और सफलता लाता है। व्यक्ति के मन में वह उत्साह, उमंग और प्रफुल्लता भरता है। वहीं खराब ख्याल नकारात्मकता, बुराई, असफलता, दुख और बीमारी की वजह बनता है। कोई पूछ सकता है कि बुरे विचार कल्पना हैं तो वह भी तो कहीं से उठी होगी? यह संसार, आपके आसपास रहने वाले लोग और रोजाना घटित होने वाली घटनाओं को देखकर ही विचार आते हैं और कल्पना भी। असल में यह संसार ही इंसान का आईना है। सिद्ध पुरुष इस आईने में खुद को देखते हैं, लेकिन मूर्ख कभी खुद को नहीं देखता। वह दूसरों की छवि देखता है। यहीं से उसके दुख शुरू होते हैं।  

सुखस्य दुःखस्य न कोपि दाता

सुखस्य दुःखस्य न कोपि दाता 

 

जो विचार कष्टकारी हो उसे त्याग देना चाहिए। वह जीवन में नकारात्मकता सोच  लाता है, जीना दुष्कर कर देता है। पर यह भी समझना होगा कि अक्सर इस तरह के विचार काल्पनिक ही होते हैं। अधिकतर तो ऐसा कुछ होता ही नहीं। कल्पनाओं से दुख पाने की आदत न सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपनों के लिए भी दुख लाती है। इस तरह का व्यक्ति न तो खुद ठीक से जी पाता है, न ही अपने आस-पास के लोगों को चैन से जीने देता है।

 

जीवन में सुख-दुख, अच्छाई-बुराई, आचार-व्यवहार में विचारों का विशेष महत्व होता है। अच्छा भाव सकारात्मकता, जीवंतता और सफलता लाता है। व्यक्ति के मन में वह उत्साह, उमंग और प्रफुल्लता भरता है। वहीं खराब ख्याल नकारात्मकता, बुराई, असफलता, दुख और बीमारी की वजह बनता है। कोई पूछ सकता है कि बुरे विचार कल्पना हैं तो वह भी तो कहीं से उठी होगी? यह संसार, आपके आसपास रहने वाले लोग और रोजाना घटित होने वाली घटनाओं को देखकर ही विचार आते हैं और कल्पना भी। असल में यह संसार ही इंसान का आईना है। सिद्ध पुरुष इस आईने में खुद को देखते हैं, लेकिन मूर्ख कभी खुद को नहीं देखता। वह दूसरों की छवि देखता है। यहीं से उसके दुख शुरू होते हैं।

 

अगर इस तरह के समाज में रह रहे हैं तो हैं मनुष्य, संघर्ष से होता है संपूर्ण नाश

 

हमें समझना होगा कि दुख हमारे मन में होने वाले चिंतन से उठता है। जीवन में घटने वाली घटनाओं में जब हम अपने विचारों को नत्थी करके उसकी परिभाषा बनाते हैं, उसे सच मानने लगते हैं तो चिंतन-मनन कई गुना बढ़ जाता है। जीवन की जो भी घटनाएं दुखद लगती हैं, उन्हें नकारात्मक नजरिए से देखेंगे तो वे वैसा ही फल देंगी। जब-जब ऐसा जीवन में होगा, दुख ही मिलेगा। कौटिल्य कहते हैं कि मूर्खता कष्ट है। यौवन भी कष्ट है। लेकिन दूसरों के घर में रहना सबसे बड़ा कष्ट है। उनके अनुसार अगर इंसान चाहे तो आसानी से खुशी पा सकता है। लेकिन जो लोग मूर्ख होते हैं, वे सही और गलत तो दूर, कठिन और आसान का भी फर्क नहीं कर पाते। ऐसे लोगों को हमेशा किसी ना किसी तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

 

कौटिल्य यह भी कहते हैं कि युवा काफी दुखी रहते हैं। यह ऐसी उम्र होती है जिसमें इंसान के भीतर कई इच्छाएं एक साथ उत्पन्न होती हैं, जिनमें से कुछ ही पूरी हो पाती हैं। ऐसे में व्यक्ति इतना जोशीला हो जाता है कि वह थोड़ा पाकर ही अहंकार से भर उठता है। इसकी वजह से उसे आगे चलकर कष्टों का सामना करना पड़ता है। उसकी आजादी खत्म हो जाती है। वह अंदर से घुटने लगता है। विचारों में भी यही है। हम सबको यह सोचते रहना चाहिए कि कहीं हमारे विचार किसी दूसरे के दिए हुए तो नहीं हैं?

 

इस तरह के विचारों से हर कार्य कर सकते हैं पूरा, लेकिन इनसे रहें दूर

 

भगवद‌्गीता के अनुसार आदमी को अपना उद्धार अपनी सोच से ही करना चाहिए। व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु भी। आत्मा ही आत्मा की मित्र होती है और वही शत्रु भी होती है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान मान कर युद्ध में लग जा। इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा। यानी विचार अगर बाहरी चीजों से प्रभावित नहीं होते, तभी कर्मों से पुण्य मिल सकता है अन्यथा दुख तो इंतजार में बैठा ही है।-