आदर्श भक्त राजा शिवि
राजा - हे बाज ! भयमें पड़े हुए जीवोंकी रक्षा करनेसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है । जो मनुष्य दयासे द्रवित होकर जीवोंको अभयदान देता है वह इस देहके छूटनेपर सम्पूर्ण भयसे छूट जाता है । लोकमें बड़ाई या स्वर्गके लिये धन, वस्त्र और गौ देनेवाले बहुत हैं परन्तु सब जीवोंकी भलाई करनेवाले पुरुष दुर्लभ हैं। बड़े-बड़े यज्ञोंका फल समयपर क्षय हो जाता है, पर भयभीत प्राणीको दिया हुआ अभयदान कभी क्षय नहीं होता- मैं राज्य या अपना दुस्त्यज शरीरका त्याग कर सकता हूँ, पर इस दीन, भयसे त्रस्त कबूतरको नहीं छोड़ सकता ।
“न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
प्राणिनां दुःखतप्तानां कामये दुःखनाशनम् ॥“
(शिवि) शीनर - पुत्र हरिभक्त महाराज शिवि बड़े ही दयालु और शरणागतवत्सल थे । एक समय राजा एक महान् यज्ञ कर रहे थे । इतने में भय से काँपता हुआ एक कबूतर राजाके पास आया और उनकी गोदमें छिप गया । इतनेमें ही उसके पीछे उड़ता हुआ एक विशाल वाज वहाँ आया और वह मनुष्यको -सी भाषा में उदारहृदय राजा से बोला बाज - हे राजन् ! पृथिवी के धर्मात्मा राजाओं में आप सर्वश्रेष्ठ हैं, पर आज आप धर्मसे विरुद्ध कर्म करनेकी इच्छा कैसे कर रहे - हैं ? आपने कृतघ्नको धनसे, झूठको सत्यसे, निर्दयीको क्षमासे और असाधुको अपनी साधुतासे जीत लिया है । उपकार करने वालेके साथ तो सभी उपकार करते हैं परन्तु आप बुराई करने - * न मैं राज्य चाहता हूँ, न स्वर्ग चाहता हूँ और न अपुनर्भव-मोक्ष ही चाहता हूँ | मैं दुःखसे पीड़ित प्राणियोंके दुःखका नाश चाहता हूँ ।आदर्श भक्त
चालेका भी उपकार करते हैं। जो आपका अहित करता है आप उसका भी हित करना चाहते हैं। पापियोंपर भी आप दया करते हैं । और तो क्या, जो आपमें दोष दृढ़ते हैं उनमें भी आप गुण ही ढूँढते हैं | ऐसे होकर भी आज आप यह क्या कर रहे हैं ? मैं भूखसे व्याकुल हूँ । मुझे यह कबूतररूपी भोजन मिला है, आप इस कबूतर के लिये अपना धर्म क्यों रहे है !
कबूतर - महाराज ! मैं बाजसे डरकर प्राणरक्षा के लिये आपके शरण आया हूँ । आप मुझे बाजको कभी मत दीजिये !
राजा - (बाजसे) तुमसे डरकर यह कबूतर अपनी प्राणरक्षाके लिये मेरे समीप आया है । इस तरहसे शरण आये हुए कबूतरका त्याग में कैसे कर दूँ ? जो मनुष्य शरणागतको रक्षा नहीं करते या लोभ, द्वेष अथवा भयसे उसे त्याग देते हैं उनकी उजन लोग निन्दा करते हैं और उनको ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है। जिस तरह हमलोगोंको अपने प्राण प्यारे हैं, उसी तरह सबको प्यारे हैं। अच्छे लोगोंको चाहिये कि वे मृत्युभयसे व्याकुल जीवोंकी रक्षा करें । 'मैं मरूँगा' यह दुःख प्रत्येक पुरुषको होता है। इसी अनुमानसे दूसरेकी भी रक्षा करनी चाहिये । जिस प्रकार तुमको अपना जीवन प्यारा है उसी प्रकार दूसरोंको भी अपना जीवन प्रिय है । जिस तरह तुम भूखसे मरना नहीं चाहकर अपना जीवन बचाना चाहते हो, उसी तरह तुम्हें दूसरोंके जीवनकी भी रक्षा करनी चाहिये । हे बाज ! मैं यह भयभीत कबूतर तुम्हें नहीं दे सकता, और किसी उपायसे तुम्हारा काम बन सकता हो तो मुझे शीघ्र बतलाओ, मैं करने को तैयार हूँ ।
वाज - महाराज ! भोजनसे ही जीव उत्पन्न होते, बढ़ते और जीते हैं, बिना भोजन कोई नहीं रह सकता । मैं भूखके मारे मर जाऊँगा तो मेरे बाल-बच्चे भी मर जायँगे । एक कबूतरके वचाने में बहुत-से जीवोंकी जानें जायँगी । हे परन्तप ! उस धर्मको धर्म नहीं कहना चाहिये जो दूसरे धर्म में बाधा पहुँचाता है । श्रेष्ठ पुरुष उसीको धर्म बतलाते हैं जिससे किसी भी धर्ममें बाधा नहीं पहुँचती । अतएव दो धर्मोका विरोध होनेपर बुद्धिरूपी तराजू से उन्हें तौलना चाहिये और जो अधिक महत्त्वका और भारी मालूम हो, उसे ही धर्म मानना चाहिये ।
राजा - हे बाज ! भयमें पड़े हुए जीवोंकी रक्षा करनेसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है । जो मनुष्य दयासे द्रवित होकर जीवोंको अभयदान देता है वह इस देहके छूटनेपर सम्पूर्ण भयसे छूट जाता है । लोकमें बड़ाई या स्वर्गके लिये धन, वस्त्र और गौ देनेवाले बहुत हैं परन्तु सब जीवोंकी भलाई करनेवाले पुरुष दुर्लभ हैं। बड़े-बड़े यज्ञोंका फल समयपर क्षय हो जाता है, पर भयभीत प्राणीको दिया हुआ अभयदान कभी क्षय नहीं होता- मैं राज्य या अपना दुस्त्यज शरीरका त्याग कर सकता हूँ, पर इस दीन, भयसे त्रस्त कबूतरको नहीं छोड़ सकता ।
यन्ममास्ति शुभं किञ्चित्तेन जन्मनि जन्मनि । भवेयमहमार्त्तानां प्राणिनामार्त्तिनाशकः ॥ न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम् । प्राणिनां दुःखतप्तानां कामये दुःखनाशनम् ॥
'अपने पहलेके जन्मोंमें मैंने जो कुछ भी पुण्य किया है उसका फल मैं केवल यही चाहता हैं कि दुःख और शमें पड़े हुए प्राणियोंका मैं क्लेश नाश कर सकूँ। मैं न राज्य चाहता हूँ, न स्वर्ग चाहता हूँ और न मोक्ष चाहता हूँ, मैं चाहता हूँ केवल दुःखमें तपते हुए प्राणियों के दुःखका नाश !
हे बाज ! तुम्हारा यह काम केवल आहारके लिये है । तुम आहार चाहते हो, मैं तुम्हारे दुःखका भी नाश चाहता हूँ, अतएव तुम मुझसे कबूतर के बदले में चाहे जितना और आहार माँग लो । बाज - हमलोगों के लिये शास्त्रानुसार कबूतर ही आहार अतएव आप इसीको छोड़ दीजिये । है.
राजा - हे बाज ! मैं भी शास्त्रसे विपरीत नहीं कहता । शास के अनुसार सत्य और दया सबसे बड़े धर्म हैं । उठते बैठते, चलते, सोते या जागते हुए जो काम जीवोंके हितके लिये नहीं होता वह पशुचेष्टाके समान है । जो मनुष्य स्थावर और जङ्गम जीवोंकी आत्मवत् रक्षा करते हैं वे ही परमगतिको प्राप्त होते हैं । जो मनुष्य समर्थ होकर भी मारे जाते हुए जीवको परवा नहीं करता, वह घोर नरकमें गिरता है। मैं तुम्हें अपना समस्त राज्य दे सकताहूँ या इस कबूतरके सिवा तुम जो कुछ भी चाहोगे सो देने को तैयार हूँ, पर कबूतरको नहीं दे सकता ।
बाज - हे राजन् ! यदि इस कबूतरपर आपका इतना ही प्रेम है तो इस कबूतरके ठीक बराबरका तौलकर आप अपना मांस मुझे दे दीजिये, मैं अधिक नहीं चाहता ।
राजा -बाज ! तुमने बड़ी कृपा की । तुम जितना चाहो उतना मांस मैं देने को तैयार हूँ । इस क्षणभंगुर, अनित्य शरीरको देकर भी जो नित्य धर्मका आचरण नहीं करता वह मूर्ख शोचनीय है । यदि प्राण्युपकाराय ! देहोऽयं नोपयुज्यते । ततः किमुपकारोऽस्य प्रत्यहं क्रियते वृथा || 'यह शरीर यदि प्राणियोंके उपकार के लिये उपयोगमें न आवे तो प्रतिदिन इसका पालन-पोपण करना व्यर्य है ।' हे बाज ! मैं तुम्हारे कथनानुसार ही करता हूँ ।
यह कहकर राजाने एक तराजू मँगवाया और उसके एक पलड़े में कबूतरको बैठाकर दूसरेमें वे अपना मांस काट-काटकर रखने लगे और उसे कबूतर के साथ तौलने लगे। अपने सुखभोगकी इच्छाको त्यागकर सबके सुखमें सुखी होनेवाले सज्जन ही दूसरोंके दुःखमें सदा दुखी हुआ करते हैं । कबूतरकी रक्षा हो और बाजके भी प्राण बचें, दोनोंका ही दुःख निवारण हो, इसीलिये आज महाराज शिवि अपने शरीरका मांस अपने हाथों प्रसन्नता से काटआदर्श भक्त
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काट दे रहे हैं । भगवान् छिपे -छिपे अपने भक्त के इस त्यागको देख देखकर प्रसन्न हो रहे हैं । धन्य त्यागका आदर्श !
तराजूमें कबूतरका वजन मांससे बढ़ता गया, राजाने शरीर भरका मांस काटकर रख दिया परन्तु कबूतरका पलड़ा नीचा ही रहा । तब राजा खयं तराजूपर चढ़ गये । ठीक ही तो है
परदुःखातुरा नित्यं सर्वभूतहिते रताः । नापेक्षन्ते महात्मानः स्वसुखानि महान्त्यपि ॥
'दूसरेके दुःखसे आतुर, सदा समस्त प्राणियोंके हितमें रत महात्मालोग अपने महान् सुखकी तनिक भी परवा नहीं करते !' राजा शिविके तराजूमें चढ़ते ही आकाशमें बाजे बजने लगे और नभसे पुष्प वृष्टि होने लगी ।
राजा मनमें सोच रहे थे कि यह मनुष्यकी-सी वाणी बोलने वाले कबूतर और बाज कौन हैं ? तथा आकाशमें बाजे वजनेका क्या कारण है, इतनेही में वह बाज और कबूतर अन्तर्धान हो गये और उनके बदले में दो दिव्य देवता प्रकट हो गये। दोनों देवता इन्द्र और अग्नि थे । इन्द्रने कहा
'राजन् | तुम्हारा कल्याण हो !! मैं इन्द्र हूँ और जो कबूतर बना था वह यह अग्नि है । हमलोग तुम्हारी परीक्षा करने आये थे । तुमने जैसा दुष्कर कार्य किया है ऐसा आजतक किसीने नहीं किया । यह सारा संसार मोहमय कर्मपाशमें बँधा हुआ है, परन्तु तुम जगत्केराजा शिवि
दुःखोंसे छूटनेके लिये करुणासे बँध गये हो। तुमने बड़ोंसे ईर्षा नहीं को, छोटोंका कमी अपमान नहीं किया और बराबरवालोंके साथ कभी स्पर्द्धा नहीं की, इससे तुम संसारमें सबसे श्रेष्ठ हो । विधाताने आकाशमें जलसे भरे वादलोंको और फलसे भरे वृक्षोंको परोपकार के लिये ही रचा है । जो मनुष्य अपने प्राणोंको त्यागकर भी दूसरेके प्राणोंकी रक्षा करता है वह उस परमधामको पाता है जहाँ से फिर लौटना नहीं पड़ता । अपना पेट भरने के लिये तो पशु भी जीते हैं, किन्तु प्रशंसा के योग्य जीवन तो उन लोगोंका है जो दूसरोंके लिये जीते हैं । सत्य है, चन्दनके वृक्ष अपने ही शरीरको शीतल करने के लिये नहीं उत्पन्न हुआ करते । संसार में तुम्हारे सदृश अपने सुखको इच्छासे रहित, एकमात्र परोपकारको बुद्धिवाले साधु केवल जगत् के हित के लिये ही पृथिवीपर जन्म लेते हैं । तुम दिव्य रूप धारण करके चिरकालतक पृथिवोका पालनकर अन्तमें भगवान् के ब्रह्मलोक में जाओगे ।'
इतना कहकर इन्द्र और अग्नि स्वर्गको चले गये । राजा शिवि यज्ञ पूर्ण करनेके बाद बहुत दिनोंतक पृथिवीका राज्य करके अन्तमें दुर्लभ परमपदको प्राप्त हुए ।