आपने आपसे से प्रेम नहीं हुआ तो दूसरों से कैसे होगा ?

हम अपने संबंधों के दायरे में निस्संदेह सभी से प्रेम करते हैं। सवाल है कि क्या हम उन्हें बिना शर्त प्रेम करते हैं? शायद नहीं। क्योंकि हम अपनी अंतरात्मा के मूल गुण शांति, प्रेम और प्रसन्नता को अनुभव या व्यवहार में नहीं ला पाते हैं। फलस्वरूप जब हमारा मन व्याकुल होता है, तब हम स्थिर मन से उत्तर भी नहीं दे पाते हैं- प्यार के बारे में सोचना तो दूर की बात रही।

आपने आपसे  से प्रेम नहीं हुआ तो दूसरों से कैसे होगा ?

 

प्यार में गिरने या प्रेम में पड़ने को अंग्रेजी में कहते हैं- फॉल इन लव। वास्तव में सच्चा प्रेम हमें गिराता नहीं, वह तो हमारे जीवन को ऊंचा उठाता है। जीवन प्रेम को जीने और प्रेम से जीने के लिए है। हमारे अनुभवों को सुखद और बेहतरीन बनाने के लिए है। देखा जाए तो दैहिक प्रेम स्वार्थी, सीमित और अल्पकालीन होते हैं। जबकि आत्मिक स्नेह नि:स्वार्थ और दीर्घकालीन होते हैं। शारीरिक स्नेह या दैहिक संबंध हमें बंधन में डालता है। जबकि रूहानी स्नेह या संबंध हमें सारे सांसारिक कर्म बंधनों से मुक्त कर देता है। रूहानी स्मृति, दृष्टि और वृत्ति हमारे संबंधों को मधुर, सहनशील तथा संपूर्ण बनाती है।

 

असल में हम कोई भी संबंध प्रेम देने और पाने के लिए बनाते हैं। प्रेम भावनात्मक पूर्णता का स्रोत है। सच्चा प्रेम हमारे जीवन में प्रगति का मार्गदर्शक बन जाता है। कई बार कोशिश के बावजूद हम प्रेम से वंचित रह जाते हैं। पर जब हम निर्मल प्रेम के चिरंतन स्रोत परमात्मा से अपनी अंतरात्मा जोड़ लेते हैं, तब हमारे जीवन में प्रेम की कोई कमी नहीं रहती। सबसे श्रेष्ठ आत्मिक और परमात्म प्रेम है। इससे प्रेम के मार्ग में आने वाली बाधाएं हट जाती हैं। संकीर्ण विश्वासों से ऊपर उठ कर हम सच्चे प्रेम के वाहक बन जाते हैं। साथ ही, इस प्रेम को महसूस करना और कराना हमारे लिए सहज और स्वाभाविक हो जाता है।

 

हम अपने संबंधों के दायरे में निस्संदेह सभी से प्रेम करते हैं। सवाल है कि क्या हम उन्हें बिना शर्त प्रेम करते हैं? शायद नहीं। क्योंकि हम अपनी अंतरात्मा के मूल गुण शांति, प्रेम और प्रसन्नता को अनुभव या व्यवहार में नहीं ला पाते हैं। फलस्वरूप जब हमारा मन व्याकुल होता है, तब हम स्थिर मन से उत्तर भी नहीं दे पाते हैं- प्यार के बारे में सोचना तो दूर की बात रही। अक्सर हम अपनी दुर्दशा के लिए दूसरों या हालात को दोषी ठहराते हैं। कभी हम दूसरों के लिए जजमेंटल होते हैं। कभी हम किसी को अपनी तरह काम न करते देख नाराज होते हैं। कभी दूसरे हमें स्वीकार नहीं करते। ये सब बातें हमारे प्रेम के प्रवाह में बाधा पैदा करती हैं। तब हम अंतरात्मा के मूल गुण प्रेम का अनुभव करना बंद कर देते हैं, और सामने वाले से उस प्यार को पाने की अपेक्षा करते हैं। हम भूल जाते हैं कि हम अपनी अंतरात्मा से जुड़ कर ही प्रेम के अनंत स्रोत परमात्मा तक पहुंच सकते हैं।

 

 

दूसरी बात, बहुत से लोग केवल अपनी शर्तों पर ही प्रेम करते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि वे इसे बाहर खोजते हैं। असल में प्रेम का अनुभव आपसे ही आरंभ होता है। अगर आप खुद से प्रेम नहीं करते हैं, तो आप के लिए दूसरों से प्यार करना संभव ही नहीं है। जब आप खुद को प्रेम करने लगते हैं, तो उसे दूसरों को देना सहज हो जाता है। तब आप आसानी से मोह, अपेक्षा, स्वामित्व भाव या दूसरों को नियंत्रित करने जैसी प्रेम विरोधी भावनाओं का परित्याग कर पाते हैं। जब मन में अपने और दूसरों के प्रति स्नेह का भाव साफ हो, तो संबंधों में पैदा होने वाली ऊर्जा शुद्ध होती है। तब दया, करुणा और सहयोग जैसी श्रेष्ठ भावनाएं प्रेम का प्रवेश द्वार बन जाती हैं। हम दूसरों के प्रेम को पाने की अपेक्षा से हट कर जीवन को बदलने वाली परमात्म प्राप्ति की ओर बढ़ पाते हैं।